मोटीवेशनल कविता:- ऐ सारथी
ऐ सारथी👇
ऐ सारथी !
कब-तक बैठोगे तुम धड़े हाथों पर हाथ,
कब तक बैठेगा तू लेकर यही आशा,
की भगवान करेंगे शुरुआत;
यह ले तू जान यह जीवन बड़ा है कंजूस,
एक बार बीत गया सावन तो भगवान भी नहीं कर पाएंगे कुछ,
फिर तू पछताएगा की क्यों बैठा था धर के हाथों पर हाथ,
भगवान भी उसी के साथ देते हैं जो देता है खुद का साथ।
भगवान और कहीं नहीं हैं वो तो बस
अपने कर्मों में- मनो में और वंदना में है,
भगवान नहीं मिलते जाकर मंदिर में बैठने से,
भगवान तो मिलते हैं वहां जहां चिड़िया बिटोरती है दाने,
चिटियां करती है-होड़,
भगवान वहां नहीं मिलते जहां हो, बिना कर्म के आश,
भगवान तो वहां मिलते हैं-जहां हो कर्म विकराल,
ऐ सारथी !
कब-तक बैठोगे तु धड़ हाथों पर हाथ,
एक बार जो बीत जाएगा नवजीवन तो,
पछताएगा अपने मूर्खता पर तू कल,
और वह होगी तेरी सबसे बड़ी दुखदाई मृत्यु का पल।
तब भगवान् को कोसने से कुछ नहीं होगा;
तेरे आज कुछ करने से होगा-
तेरे उठ जाने से होगा-
मुढियों के खुल जाने से होगा-
जो होगी तेरी रजामंदी तभी खुलता है मंदिर का द्वार,
वर्ना तो सुदामा की मदद ऐसे नहीं करते भगवान !
जब तक सुदामा ना पहुंचे उनके द्वारा-
वासुदेव भी है दुर्बल देने को उनका साथ !
भगवान का साथ पाने के लिए चलना पड़ता है,
मार्ग में भटको तो पता पूछना पड़ता है।
मगर खाली घर पर बैठे-बैठे सुदामा का नहीं बनता महल है,
बिना कर्म के आश के बस मन होता दुर्बल है,
और होता कुछ नहीं खास !
ऐ सारथी !
कब तक बैठेगा तू धड़े हाथों पर हाथ,
भगवान भी उन्हीं के साथ हैं जो हो अपने कर्मों में लिप्त,
वर्ना तो भगवान भी है एक दुर्बल देने को तेरा साथ !
जो उनका साथ पाना है तो करना पड़ेगा कर्म पर कर्म ,
तब मिलेगा तुजको तेरा भगवान का साथ,
वर्ना ऐसे ही हो जाएगा तेरा राम नाम सत् ,
फिर ना आश रहेगी ना प्यास।
फिर मिलेगा तु भगवान को और होगा-
शर्मिंदा अपने कर्मों पर,
और पछता के क्या पाएगा एक दुत्कार अपनी:-
ही अपने मौत से पहले मर जाने पर,
और नहीं कुछ खास इसलिए चलकर तू इक नई शुरुआत।
ऐ सारथी!
कब-तक बैठेगा तू धड़े हाथों पर हाथ!....
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