जब-भी मैं गिरता हूं,
मैं उठता हूं-संभलता हूं,
जब-जब ठोकरें खाता हूं,
मैं संभलकर चलना सीखता हूं,
जब भी दर्द में देखता हूं,
मैं जिंदा हूं,
मैं इंसान हूं,
मैं भी डरता हूं,
मुझे भी परिवार की जरूरत है,
मैं समझ पाता हूं ।
जब भी मैं मुश्किलों में घीरता हूं,
खुद को अंदर से पहचान पाता हूं,
जब भी मैं गिरता हूं,
मैं उठता हूं-संभलता हूं,
मैं अपने-आप पर भरोसा कर पाता हूं,
किसी की जरूरत नहीं होती,
बस जरूरत होती है:- जुर्रत करने की खुद से ;
जब भी मैं करता हूं-यह सब समझ पाता हूं,
जब भी मैं गिरताता हूं,
मैं उठता हूं-संभलता हूं!.
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मैं खुद को✍️ कवि कहता हूं :-
मैं कुछ शब्दों पर मरता हूं,
उनमें अंतहीन डूब जाता हूं,
जब भी किताब खोलता हूं-दुनिया भूल जाता हूं,
मैं खुद को कवि कहने की जुर्रत करता हूं,
मैं खुद को कवि कहता हूं,
मैं कुछ शब्दों पर मरता हूं!..
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जब भी मैं कलम🖋️ उठाता हूं....
यति-गति सब भूल जाता हूं,
जब भी मैं कलम उठाता हूं,
गहरे-बहुत-गहरे सोच समझ में डूब जाता हूं,
जब भी कोई मनपसंद कहानी-कविता पढ़ता हूं,
संसार से दूर- मृगतृष्णा में डूब जाता हूं,
जब भी मैं कलम उठाता हूं,
संसारो से दूर-समाजों के बंधनों से दूर,
जाति-पाती,ऊंच-नीच से दूर,
हर असंभव से परे- सागर में तो कभी-आकाश में डूब जाता हूं,
जब भी मैं कलम उठाता हूं,
यति-गति सब भूल जाता हूं!...
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