कितने‌‌-‌‌शाम गुजरे हैं:👉

कितने शाम गुजरे हैं तब जाकर मिल पाया हूं:-

खुद से,

दांत कच्चे थे शायद तब पहली बार मिला था खुद से,

आज मैयत पर लेटा हूं तो फिर मिला हूं खुद से,

ना लोगों से बात हो रही है

ना नियत खराब हो रही है,

बस दिल साफ और हम वापस बच्चे हो रहे हैं,

सभी अपनों के अपना बनकर बस चुपचाप गले लगना चाहते हैं,

बिना गलती ढूंढे किसी की- बस साथ बैठना चाहते हैं:-

दो पल,

चुप-चाप शांत मध्यम पवन में,

आसमान को तकते-पैरों को हिलाते,

बैठना चाहता हूं मैं बेफिक्रे फिर से,

कितने शाम गुजरे - तो जाकर मिल पाया हूं खुद से।

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शून्य में मैं-सौ ढूंढता हूं,

राख में मैं-अस्तित्व ढूंढता हूं, 

मैं बीते हुए कल का-आज ढूंढता हूं,

 मैं मेहताब में बैठे - अफताब ढूंढता हूं, 

मैं इंसानियत हूं-‌इंसानी बस्ती में:-

अपनी अस्तित्व ढूंढता हूं,

 मैं गुलामों की बंजर जमीन पर, 

बेजान बीज की विद्रोह ढूंढता हूं,

 मैं नई सुबह की शाम हूं,

 मैं इंसानियत- इंसानी बस्ती में,

 मैं अपनी चेहरा ढूंढता हूं,

शून्य में-मैं सौ ढूंढता हूं,

 करोड़ों की भीड़ में-

 मैं अपनी एकांत ढूंढता हूं,

मैं उदास चेहरों पर-

 'मुस्कान'  ढूंढता हूं,

 मैं इंसानियत हूं-

बेदर्द जमाने में -मैं एहसास ढूंढता हूं,

भूखे पेटों का अनाज ढूंढता हूं,

शून्य में मैं-सौ ढूंढता हूं,

राख में मैं अस्तित्व ढूंढता हूं,

मैं इंसानियत हूं-

इंसानी स्टेशन पर अपनी गंतव्य ढूंढता हूं,

 मैं अरबों के बीच किसी एक को ढूंढता हूं!...

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मैं बेदर्द जमाने में:-

मोहब्बत की बीज ढूंढता हूं,
मैं नकाबो की दुनिया में,
बेनकाब लोग ढूंढता हूं,
जिनके होठों पर भी जान हो,
 दिलों में भी अरमान हो,

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