जिंदा हो !

अगर आंखों-से-आंख मिला सकते हो-

 तो जिंदा हो,

हाथों‌ से हाथ बढ़ सकते हो-

 तो जिंदा हो,

 अगर प्यार बांट सकते हो-

 तो इंसान हो,

अगर हिम्मत बन सकते हो-

तो इंसान हो,

 परवाह कर सकते हो-

 तो इंसान हो,

 औरों की होठों पर मुस्कान देख सकते हो-

 तो इंसान हो,

 अगर तुम उम्मीद कर रहे हो-

 तो जिंदा हो,

 तुम इंसान हो! तुम इंसान हो!

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‌‌।                            समाज 

जीते आ रहा हूं-

 सदियों से इस जमाने में,

 मैं इंसान नहीं,

 मैं समाज हूं,

 ना मैं बाहर ना अंदर,

 मैं सर्व-व्याप्त हूं,

 मैं समाज हूं !

 काली कोठियों के बंधन से  

महलों की आजादी तक,

 टूटने से मरने तक,

 छोटी से बड़े होने तक ,

मैं सर्व-व्याप्त हूं,

 मैं इंसान नहीं।

 मैं इंसानी बस्ती का प्रतीक हूं। 

हां!

 मैं  समाज हूं!

सत्य युग से - युगांत तक ,

 मैं सर्व-व्याप्त हूं,

 मैं सर्व सर्वसर‌ हूं,

 मैं समाज हूं!

 इंसान नहीं-नहीं जानवर।

 मैं बस उनका प्रतीक हूं ,

मैं समाज हूं।

 अयोध्या की सुबह तो,

 लंका की आग हूं,

ना मैं भगवान - ना आम हूं,

 मैं समाज हूं! 

मैं सर्व व्याप्त हूं!

एक पारिवारिक कहानी👈



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