बुराई मे रस

 जुबान सबकी चलने लगी ,

जब बारी आई बुराई सुनने की तो गूंगे भी चिल्ला उठे,

 महफिलों में आग लगा बैठे,

 समुंद्र में शोर मचा बैठे ,

जब बारी आई बुराई सुनने की तो कान दीवारों के भी खड़े हो उठे,

 बुराई में रस लेने के लिए लोग नंगे पैर ही दौड़े चले;

 आनन-फानन में शब्दों के बाण चलें ,

और पुरूषार्थ पर सबके करें प्रश्न उठे,

  सच्चे लोग सच्चाई छोड़ मचल उठे ,

जब बारी आई बुराई सुनाने की तो हर कण-कण चिल्ला उठी,

  मगर जब बात बित गई ,समुंद्र की शांति लौट आई,

 तो सारे अच्छे अपने आपको सफाई देने लगे,

" हम तो पता है औरों के घर मे झांकते भी नहीं ,

और ना जाने कैसे लोग चोरी कर लेते हैं यहां,

 पर हम तो झूठ बोलते नहीं,

मगर ना जाने लोग हिम्मत कैसे जुटा पाते हैं,

 हम तो बुराई पसंद नहीं करते,

 राम-राम जो बोलते  है उसी के साथ बुरा हो,

 हम तो किसी की बुरा नहीं चाहते कभी!"...

...वरूण 




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